People’s Union for Democratic Rights

A civil liberties and democratic rights organisation based in Delhi, India

करोना वाइरस से बचने के लिए देश भर में लगाए गए लाक्डाउन के बावजूद भी आनंद विहार बस अड्डे, दिल्ली बॉर्डर और यमुना ऐक्स्प्रेस्वे पर पैदल चलते मज़दूरों की तादाद कम नहीं हो रही है। इस संदर्भ में केंद्रीय सरकार, दिल्ली सरकार और सोलिसिटर जेनरल के बयानों और आदेशों को देखें:

  • 22 मार्च 2020 को दिल्ली सरकार द्वारा 31 मार्च तक लाक्डाउन की घोषणा के लिए जारी किए गए लिखित आदेश में [Order No. F.51/DGHS/PH-IV/COVID-19/2020/prsecyhfw/ dated 22.03.2020], दिहाड़ी मज़दूर, ठेले व पटरी मज़दूर, रिक्शा व टैक्सी चालक और इनके जैसे दिल्ली के लाखों असंगठित मज़दूरों के लिए, सिवाय बंद के, कोई व्यवस्था नहीं थी। जहां निजी संस्थानों को हिदायत थी की उनके कर्मचारियों को तंख्वाहें दी जाएँ, मज़दूरों के लिए इसमें कोई राहत नहीं थी।
  • 24 मार्च को लाक्डाउन के तीसरे दिन, केंद्रीय श्रम मंत्रालय जागा और उसकी सलाह पर निर्माण मज़दूर कल्याण बोर्ड में जमा उपकर राशि में से दिल्ली के हर निर्माण मज़दूर के लिए केवल 5-5 हज़ार रुपय देने का ऐलान किया गया [CM Press Briefing, 24 March 2020, https://www.youtube.com/watch?v=yTGqN5HteSs, at 00:09:30] लेकिन मुख्यमंत्री ने यह नहीं बताया कि दिल्ली के लगभग 10 लाख निर्माण मज़दूर कैसे यह राशि ले पाएँगे, जबकि इनमें से इस वर्ष केवल 31 हज़ार मज़दूर ही इस बोर्ड के साथ पंजीकृत हैं।
  • 23 मार्च और उसके बाद की सभी प्रेस वार्ताओं में मुख्यमंत्री मालिकों से मज़दूरों के लिए दया और धर्म का हवाला देकर दिहाड़ी देने और मकानों का किराया एक-दो माह टालने भर की अपील करते नज़र आए। [CM, Press Briefing, 23 March 2020, https://www.youtube.com/watch?v=lxOnrfsLp3s, at 00:07:50] एक संवैधानिक पदाधिकारी से उमीद थी के वे मज़दूरों के संवैधानिक अधिकारों को सुनिश्चित करने के लिए ठोस कदम उठाते, पर उन्होंने अनुच्छेद 21 को ताक पर रख, मज़दूरों को मालिकों की दया पर छोड़ दिया था। 30 मार्च तक भी मुख्यमंत्री द्वारा या सर्वोच्च न्यायालय में हुई सुनवाई में फ़ैक्टरी व मकान मालिकों के ख़िलाफ़ किसी ठोस कार्यवाही की बात नहीं हुई।
  • हज़ारों मज़दूरों द्वारा पैदल अपने गावों की ओर पलायन शुरू करने के दो दिन बाद 28 मार्च को मुख्यमंत्री ने ऐलान किया की अब वे 4 लाख लोगों को 800 सेण्टरों पर खाना खिला सकते हैं। पलायन करते मज़दूरों से अपील की, कि वे अपने घर न जाएँ, नाइट शेलटेरों में तब्दील किए गए स्कूलों में रहें। सवाल यह है की अगर मज़दूरों के लिए ऐसी अंतरिम व्यवस्था ही करनी थी, तो लाक्डाउन की घोषणा करने से पहले क्यों नहीं की गई? जब 23 मार्च की प्रेस वार्ता में यह कहा गया की 72 लाख परिवारों को अगले माह से मुफ़्त राशन दिया जाएगा, तब यह बात क्यों नहीं बताई गई की अधिकांश मज़दूरों के पास राशन कार्ड ही नहीं हैं [CM Press briefing, 23 March 2020, https://www.youtube.com/watch?v=lxOnrfsLp3s, at 00:05:15]। मध्य और उच्च वर्गीय ज़रूरतों को ध्यान में रखते हुए जोमाटो और सविग्गी आदि को 26 मार्च को आवश्यक सेवाओं में सूचीबद्ध करना तो याद रहा [S.O. No. 337/SO-CP/Delhi dated 26.03.2020]। लेकिन मज़दूरों के लिए खाना, वेतन और घर जैसे मूलभूत अधिकार आज भी सरकार के लिए प्राथमिकता पर नहीं।
  • लाक्डाउन के आठवें दिन 29 मार्च को भी, मज़दूरों के जीवन और अधिकारों की बात नहीं की गई। जब वाइरस के फैलने का ख़तरा मंडराने लगा तब जाकर केंद्रीय गृह मंत्रालय द्वारा फ़ैक्टरी व मकान मालिकों को लिखित आदेश [Order No. 40-3/2020-DM-I(A) dated 29.03.2020] दिए गए की लाक्डाउन में भी उन्हें दिहाड़ी दिया जाना अनिवार्य है, उन्हें घरों से न निकाला जाए और इसके उल्लंघन पर मालिकों के ख़िलाफ़ कार्यवाही की जाएगी। 30 मार्च को सर्वोच्च न्यायालय में हुई सुनवाई में भी सोलिसिटर जेनरल तुषार मेहता के बयान से स्पष्ट है की उनके चिंता के दायरे में केवल वाइरस को रोकना है, मज़दूरों के अधिकारों की बात कहीं नहीं [https://www.barandbench.com/news/litigation/migration-needs-to-stop-to-contain-spread-of-covid-19-sg-tushar-mehta-tells-supreme-court]
  • उधर हरियाणा सरकार ने सभी हदें पार करते हुए, यह आदेश पारित किया की बड़े स्टेडीयम “अस्थायी जेलों” में तब्दील किए जाएँगे, जहां पलायन करते मज़दूरों को गिरफ़्तार कर रखा जाएगा [Order no. 5264-5304/L&O-3 dated 29.03.2020 by ADGP, Law & Order for DGP, Haryana] उत्तर प्रदेश में मज़दूरों को जानवरों की तरह झुंड में बिठाकर उन पर रोगाणुनाशक छिड़के जा रहे हैं। जहां एक तरफ़ राज्य सभा में विदेश मंत्री जयशंकर के बयानों के मुताबिक़ ईरान, इटली, चाइना और अन्य देशों में फ़से भारतीयों को घर वापस लाने के लिए केंद्रीय सरकार द्वारा पुरज़ोर प्रयास किए गए, वहीं भारतीय मज़दूरों को अपराधियों और पशुओं का दर्ज़ा दिया जा रहा।

 

अर्थव्यवस्था के हाशिए पर जीते आए दिहाड़ी मज़दूरों को मालिकों और सामाजिक संस्थाओं के हाल क्यों छोड़ दिया गया? क्योंकि सरकारें जानती हैं की एक हफ़्ते में उनके लिए सुरक्षित और मानवीय जिंदगियाँ सुनिश्चित नहीं की जा सकती। स्पष्ट है की इन्हें इस सुनियोजित त्रासदी का सामना करने पर मजबूर किया गया। इस पूरे प्रकरण में उन्हें एक नागरिक का दर्ज़ा देकर संविधान के अनुच्छेद 21 में दिए गए उनके अधिकारों को मान देना तो दूर, बल्कि उन्हें एक अपराधी बना छोड़ा है।

राधिका चितकरा, विकास कुमार

सचिव, पीयूडीआर

pudr@pudr.org
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