People’s Union for Democratic Rights

A civil liberties and democratic rights organisation based in Delhi, India

हाल ही में अनुशासनात्मक कार्यवाही के तहत बस्तर के पूर्व आई. जी. पुलिस एस.पी.आर. कल्लूरी को दो कारण बताओ नोटिस और एक बार चेतावनी पत्र दिए गए और एस. पी. सुकमा आई.के. एलसेला और एस. पी. बस्तर आर.एन. दास के तबादले कर दिए गए। पीपल्स यूनियन फॉर डैमोक्रैटिक राइट्स का मानना है कि कानून लागू करने वाले ऑफिसरों की हैसियत से उनके द्वारा किए गए अपराधों की तुलना में ये कार्यवाही किसी भी लिहाज से नाकाफी है। इन दो नोटिसों में उन्हें निजी समारोहों में भाग लेने और सरकार की सोशल मीडिया की नीति के खिलाफ बयान देने के लिए धमकाया गया है परन्तु इनमें उनके द्वारा नागरिकों को खुले आम धमकी देने के खिलाफ कुछ भी नहीं है। छत्तीसगढ़ सरकार के अनुसार आर.एन. दास का तबादला बस्तर से बाहर बलोदा बाज़ार में कर दिया गया है और आई. के. एलसेला को रायपुर के स्टेट इंटैलीजेंस ब्यूरो में भेज दिया गया है। पर समस्या यह है कि ये पोस्टिंग किसी भी लिहाज से सज़ा की पोस्टिंग नहीं कही जा सकतीं।

2 मार्च 2017 को वाहनों के एक निजी शो रूम के उद्घाटन के अवसर पर कल्लूरी और दास की उपस्थिति में एलसेला ने खुलेआम यह पैरवी की कि मानव अधिकार कार्यकर्ताओं को ‘वाहनों के नीचे कुचल दिया जाना चाहिए’ और ऐसे बयान देने को उन्होंने बोलने की आज़ादी के बहाने सही ठहराया। बस्तर पुलिस के ऑफ़ीसर काफ़ी धड़ल्ले से सार्वजनिक रूप से हर उस व्यक्ति को देशद्रोही और गद्दार घोषित करते रहे हैं जो ‘मिशन 2016’ को पूरा करने के तहत की गई उनकी किसी भी कार्यवाही की आलोचना करता है। ये पुलिस ऑफिसर खासकर मानव अधिकार कार्यकर्ताओं और संवाददाताओं पर हमले करने के लिए गुंडों को संरक्षण देते रहे हैं और प्रोत्साहित करते रहे हैं। इस तरह से खुलेआम हत्या करने का आव्हान करना उसी प्रक्रिया का हिस्सा है। याद रहे पिछले कुछ समय में पुलिस और निजी मिलीशिया के मिले जुले हमलों ने कई वकीलों, संवाददाताओं, सामाजिक कार्यकर्ताओं और यहाँ तक कि कई व्यवसायिओं को बस्तर से बाहर कर दिया है। जो बस्तर नहीं छोड़ सके या जिन्होंने बस्तर न छोड़ने का फैसला किया, उनके खिलाफ झूठे मुकदमे दर्ज़ कर दिए गए, उन्हें तरह तरह से प्रताड़ित किया गया और उनमें से कुछ जेलों में बंद हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय और जवाहर लाल विश्वविद्यालय के शिक्षक भी इनमें शामिल हैं। कईं औरों को आरोपित किए जाने या गिरफ्तार करने की धमकियाँ भी दी गईं। बस्तर पुलिस को कुछ भी करने की जो खुली छूट मिली हुई है, उसने उन्हें इतना दुःसहासी बना दिया है कि वे सर्वोच्च न्यायालय द्वारा खुद पर आगजनी और बलात्कार के आरोप लगाए जाने की भी खिल्ली उड़ा सकते हैं, और उन सामाजिक और राजनैतिक कार्यकर्ताओं के पुतले भी जला सकते हैं, जिन्होंने ये मामले दर्ज़ किए थे। इस तरह की कार्यवाहियाँ उन सभी नागरिकों के खिलाफ बेशर्मी से हिंसा भड़काने के बराबर हैं जो आदिवासियों के खिलाफ युद्ध में पुलिस की गैरकानूनी कार्यवाहियों और इन घटनाओं के संबंध में पुलिस के विवरणों पर सवाल उठाने की हिम्मत कर रहे हैं। यहाँ यह ध्यान रखना ज़रूरी है कि राजसत्ता द्वारा आदिवासियों के खिलाफ चलाए जा रहे युद्ध का असली उद्देश्य खनन और खनन आधारित उद्योगों के खिलाफ हो रहे विरोध को कुचलना है और उन सबके हौसलों को भी ध्वस्त करना है जो कि जगह-जगह अहिंसक तरीकों से संघर्षरत हैं। जो भी ‘विकास’ के इस मॉडल का विरोध करता है वह बस्तर पुलिस की निगाहों में अपराधी है।

छत्तीसगढ़ पुलिस ऐक्ट 2007 की धारा 12(1) के तहत पुलिस की प्रमुख ज़िम्मेदारी लोगों की ज़िन्दगी, स्वतंत्रता की रक्षा करना और उनकी गरिमा बनाए रखना है। यह संविधान के अनुच्छेद 21 में से निकलता है जिसके अनुसार लोगों के ज़िंदगी और स्वाभिमान को बनाए रखने की ज़िम्मेदारी राजसत्ता की होती है। पुलिस ऐक्ट की धारा 24 के तहत एक पुलिस अधिकारी 24 घंटे ड्यूटी पर होता है। इस तरह से जिस समय इन अधिकारियों ने नाम लेकर ईशा खंडेलवाल और शालिनी गेरा को जान से मारने की वकालत की उस समय भी वे ड्यूटी पर थे। इस तरह कानून लागू करने के लिए ज़िम्मेदार इन अधिकारियों द्वारा खुले आम नागरिकों के खिलाफ हिंसा भड़काने को एक गंभीर अपराध माना जाना चाहिए। पर ऐसा हो इसकी संभावना न के बराबर है और अगर गलती से एफ.आई.आर. दर्ज़ हो भी गई तो भी उसी पुलिस द्वारा ईमानदारी से इसकी तहकीकात की उम्मीद नहीं की जा सकती और वैसे भी सी.आर.पी.सी. की धारा 197 के तहत पुलिस अधिकारियों के खिलाफ अभियोजन की स्वीकृति मिलना बहुत मुश्किल है। ऐसा कुछ ही मामलों में केवल अत्यधिक नागरिक दबाव के कारण ही हो पाया है।

कल्लूरी का यह अपराध और भी गंभीर हो जाता है क्योंकि आई.जी. बस्तर का उनका कार्यकाल हिरासत में बलात्कार, यातनाएं दिए जाने, फर्जी़ मुठभेड़ों, महिलाओं के साथ यौनिक हिंसा, लोगों को झूठे मामलों में फंसाने, ‘ओपन एंडिड’ एफ.आई.आर., आदिवासियों को तथाकथित झूठे ‘नक्सल अपराधों’ में पकड़ कर बड़ी संख्या में जेलों में ठूसने से भरा पड़ा है। यह कार्यकाल हर उस व्यक्ति को प्रताड़ित करने से भी भरा पड़ा है जिसने भी पुलिस की कहानियों पर सवाल उठाए या इन कहानियों के झूठ से विपरीत रिपोर्टिंग की, आदिवासियों के केस लडे़, उन्हें कानूनी मदद दी या पुलिस द्वारा प्रताड़ित किए जाने के खिलाफ केस दर्ज़ करवाने में उनकी मदद की।

जब सरकारी अधिकारियों के व्यवहार पर न तो शांति की स्थिति के विधी नियम का नियंत्रण रहता है न संघर्ष क्षेत्र के युद्ध के नियमों का तो ऐसे में न केवल सच की हार हो जाती है बल्कि उससे भी बुरा यह होता है कि नागरिकों को एक क्रूर व्यवस्था का सामना करना पड़ता है जो संविधान का उल्लंघन और अवहेलना करती है। यह बहस का मुद्दा है कि क्या हमारा संविधान ऐसी नकली और अन्यायी व्यवस्था की इजाज़त देता है। गंभीर अपराधों को अंजाम देने वाले पुलिस अधिकारी के खिलाफ मुकदमा चलाने और उसे दंडित करने की जगह एक धमकी भर देना, वह भी तब जबकि ये अपराध लाखों नागरिकों के दुखों और बर्बादी का कारण बने हों, इस देश की न्याय व्यवस्था की दोहरी चाल की ओर इशारा करता है। केन्द्र और राज्य सरकार जिस तरह से बस्तर में आदिवासियों के खिलाफ युद्ध चला रहे हैं उससे इसी तरह के यूनिफार्म वाले अपराधी जन्म लेते रहेंगे और पनपते रहेंगे।

 

सीजो जॉय और अनुष्का सिंह
सचिव, पी.यू.डी.आर.

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