पीयूडीआर और पीयूसीएल द्वारा 17 नवंबर 1984 को जारी की गई रिपोर्ट “दोषी कौन?” के 41 वर्ष पूरे होने के अवसर पर, जारी रिपोर्ट, दिल्ली 1984: द लॉंग आफ़्टरमाथ : आपराधिक नाइंसाफ़ी, उदासीनता और जीवित बचे लोगों के संघर्ष के 41 वर्ष (Criminal Injustice, Apathy And Struggles of Survivors) (नवंबर 2025), वर्ष 1984 में दिल्ली में सिखों के नरसंहार के बाद के लंबे परिणामों के तीन अलग-अलग पहलुओं का विस्तृत विवरण प्रस्तुत करती है। कुल मिलाकर पहले यह रिपोर्ट तीन दशकों से भी अधिक समय तक जारी रहे आधिकारिक हस्तक्षेपों के दायरे को प्रस्तुत करने के साथ-साथ इसके आधिकारिक इतिहास, आपराधिक न्याय कार्यप्रणाली, जाँच और मुकदमों की प्रकृति की तफ़सील से पड़ताल; और, नरसंहार का सामाजिक असर और उसके बाद बचे लोगों के लिए किए गए आधिकारिक हस्तक्षेप की विवेचना करती है। तीन अध्यायों में विभाजित, प्रस्तुत रिपोर्ट इस लंबे संघर्ष के विविध पहलुओं को याद करते हुए उसकी समीक्षा और दर्ज़ करने का काम भी करती है।
सन् 1984 में क्या हुआ था?
आधिकारिक हस्तक्षेपों की तुलना में, सन् चौरासी का विवरण स्वतंत्र जाँच टीमों और वालंटियरों द्वारा सबसे बेहतर ढंग से दर्ज किया गया था। इन टीमों और वालंटियरों ने प्रभावित इलाकों का दौरा कर निवासियों से मुलाकातें कर उनकी गवाहियाँ दर्ज कीं, उनके हलफ़नामे लिखे, उनके लिए राहत का प्रबंध किया, पुलिस और प्रशासन से पूछताछ की, और इन तमाम जानकारियों को अपनी-अपनी रिपोर्टों में दर्ज़ किया। उनकी ये रिपोर्टें आज तक उस समय के सर्वश्रेष्ठ दस्तावेज़ माने जाते हैं । इन महत्वपूर्ण ऐतिहासिक दस्तावेज़ों का पुनरावलोकन करते हुए, इस रिपोर्ट की प्रस्तावना कुछ प्रमुख ‘तथ्यों’ की तरफ़ हमारा ध्यान आकर्षित करती है कि उस समय आख़िर क्या हुआ था :
- हिंसा की चरंबद्ध ‘प्रकृति में हत्याओं की सुनियोजित प्रकृति स्पष्ट झलकती है;
- स्थानीय कांग्रेस (आई) नेताओं द्वारा भीड़ का पूर्व-नियोजित और सुनियोजित संगठन;
- मतदाता और राशन कार्ड सूचियों के माध्यम से घरों की पहचान;
- भीड़ को ले जाने के लिए सरकारी डीटीसी बसों का उपयोग; तथा
- उपद्रवियों और नेताओं के बीच की मिलीभगत में पुलिस की भूमिका सर्वविदित है।
हालांकि यह सर्वविदित है, कि यह एक नरसंहार था – क्योंकि सिखों का संगठित और लक्षित नरसंहार हुआ था – रिपोर्ट का बाकी हिस्सा इस बात पर केंद्रित है कि इस नरसंहार का उसके बाद के इतिहास पर क्या प्रभाव पड़ा।
हत्याओं के लिए कौन ज़िम्मेदार था?
अध्याय 1 में (पृष्ठ 6) इस बात पर चर्चा की गई है कि कैसे 11 समितियाँ, दो जाँच आयोग और दो विशेष जाँच दल (तालिका, परिशिष्ट 1, पृष्ठ 28) उन दोषियों को नामजद करने और उन पर अभियोग लगाने में नाकाम रहे जिनकी पहचान दंगों में बच गए लोगों ने की थी, और जिनके नाम रिपोर्टों में भी दर्ज़ थे।
वे नाकाम क्यों हुए?
इस अध्याय का केंद्र में, रंगनाथ मिश्र आयोग के मुख़्तारनामों (मेंडेट), प्रक्रियाओं और निष्कर्षों में आंतरिक रूप से मुद्दे को दबाने की प्रक्रियाएँ निहित हैं। इसके साथ-साथ यह भी कि नानावती आयोग के अंतर्निहित पूर्वाग्रहों ने इस नरसंहार के दो दशकों बाद अपने निष्कर्षों को कमज़ोर बनाने का काम किया।
- ज़ाहिरा तौर पर प्रशासनिक सीमाओं और आधिकारिक हस्तक्षेप ने समितियों के कामकाज को पटरी से उतारने में अपनी भूमिका निभाई, जिसका ज़िक्र न्याय की तलाश में समितियाँ वाले खंड (हिस्से) में किया गया है।
- SIT के नतीजों की कमी इस बात की पुष्टि करती है कि देरी से चलने वाले न्यायिक व्यवस्था, संस्थाओं के कामकाज में आई कमी – पुलिस और कोर्ट की भूमिका – को ठीक नहीं कर सकते, जिसने 1984 के दिल्ली दंगों के तुरंत बाद न्याय के प्रोसेस को बिगाड़ दिया था।
लेकिन क्या दिल्ली में 1984 में हुए नरसंहार की यह परिणिति एक शासक दल द्वारा पीड़ितों के लिए न्याय के हर उपलब्ध मार्ग को बाधित करने की एक नायाब मिसाल थी? हमें यह याद रखना चाहिए कि नेल्ली 1983, भागलपुर 1989, भोपाल 1992, मुंबई 1993, गुजरात 2002, या मुज़फ़्फ़रनगर 2013 के मामलों में अन्य जाँच आयोगों ने किस तरह काम किया था। प्रस्तुत चर्चा में आयोगों के इतिहास में, उन्हें आंतरिक रूप से उसे दबाने या बाहरी ताकतों के प्रति झुकाव के लक्षणों पर प्रकाश डाला गया है। इसलिए, इनके निष्कर्ष या तो सत्ताधारी सरकारों के हितों के अनुरूप ‘सुविधाजनक’ रहे हैं, या पूर्णत: ’अप्रभावी’। इसका एक प्रमुख कारण है जाँच आयोगों का सिफ़ारिशी निकाय होना, न कि अदालतें। ऐसे निष्कर्षों को जब चाहे भुलाया जा सकता है, या फिरराजनीतिक कारणों से याद किया जाता है।
1984 में दिल्ली में 2,700 से ज़्यादा सिखों की हत्या के लिए किसे सज़ा मिली?
- आपराधिक न्याय प्रणाली — दिल्ली पुलिस, निचली अदालतें और अपीलीय/संवैधानिक अदालतें (दिल्ली उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय) — की कार्यप्रणाली न्याय प्रदान करने में घोर विफलता को दर्शाती है। अध्याय 2 (पृष्ठ 13) में इस विफलता पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है।
- उपलब्ध जानकारी के अनुसार, 2,700 से ज़्यादा हत्याओं और व्यापक हिंसा की घटनाओं, जिसमें घायल करना, घरों और संपत्ति को जलाना और लूटना, यौन हिंसा और गुरुद्वारों पर हमले शामिल थे, के लिए केवल 650 एफ.आई.आर. / केस दर्ज किए गए। समाचार पत्रों से लिया गया निम्नलिखित सारांश 649 मामलों की कहानी दर्शाता है (एक मामले की जानकारी गायब है) :
- 362 आरोपपत्र दायर किए गए, जबकि 267 समापन रिपोर्ट “अज्ञात” के रूप में दायर की गईं;
- दायर किए गए 362 आरोपपत्रों में : 442 लोगों में से 39 को दोषी ठहराया गया; शेष 323 मामलों में बरी कर दिया गया;
- 323 मामलों में से 51 में, अदालतों ने आरोप ही तय नहीं किए गए;
- दिल्ली उच्च न्यायालय में दायर 12 अपीलों में से आठ खारिज कर दी गईं (जिनमें से छ: अब सर्वोच्च न्यायालय में लंबित हैं) और चार अपीलें दिल्ली उच्च न्यायालय में लंबित हैं।
- 13 मामलों के कानूनी सफ़र का विवरण प्रस्तुत किया गया है जो आपराधिक न्याय प्रणाली की भूमिका का संकेत देता है, जहाँ अपराधियों को मोटे तौर पर बचाया गया है (तालिका, परिशिष्ट 2, पृष्ठ 34)। यह कैसे संभव हुआ?
यह सब कैसे हुआ?
- अदालतों के अनुसार पुलिस जाँच से अपराधियों को ही लाभ पहुँचा न कि पीड़ितों को। अधिकांश मामलों में खराब तरीके से जाँच की गई और फिर उन्हें यह कहकर ठंडे बस्ते में डाल दिया गया कि अपराधियों की पहचान नहीं हो सकी;
- सामान्यतः, निचली अदालतों ने उन असाधारण परिस्थितियों पर गौर नहीं फरमाया जिन परिस्थितियों में अपराध हुए थे और परिणामस्वरूप, अदालतों द्वारा ऐसे निर्देश पारित नहीं किए जा सके जिनसे न्याय प्राप्त होना संभव हो पाता;
- गौरतलब है कि न तो दिल्ली उच्च न्यायालय और न ही सर्वोच्च न्यायालय द्वारा तत्काल और स्वतंत्र जाँच के निर्देश दिए गए। नतीज़तन, यह सुनिश्चित नहीं किया जा सका कि अपराध सिद्ध करने वाले सबूत विधिवत एकत्रित और संरक्षित किए जा सके। इसमें ज़िम्मेदार पदों — चाहे वे पुलिस में हों या राजनीतिक दलों में — पर बैठे लोगों के विरुद्ध भी जाँच शामिल है। न तो अदालतों ने पूरे मामले में गवाहों को सुरक्षा प्रदान करने की ज़हमत उठाई और न ही ऐसी व्यवस्थाएँ सुनिश्चित कीं जिनसे पीड़ितों सहित गवाहों को आगे आकर अपराधियों की पहचान करने के लिए सुरक्षा और विश्वास प्रदान किया जा सके। न ही इन मामलों से निपटने के लिए कोई समर्पित विशेष अदालत बनाई गई।
इस आपराधिक लापरवाही के क्या परिणाम हुए?
- पीड़ित परिवारों के सदस्यों को न्याय प्रक्रिया से प्रभावी रूप से बाहर कर दिया गया और आपराधिक न्याय प्रणाली दोषियों की पहचान करने, उन पर मुकदमा चलाने और उन्हें दंडित करने में विफल रही। आज, 41 वर्ष बाद, ऐसा प्रतीत होता है कि अदालतों में मामलों को पुनर्जीवित करने का मशीनी एवं प्रतीकात्मक प्रयास जारी है।
किसने कीमत चुकाई और इतिहास का बोझ उठाया?
प्रस्तुत रिपोर्ट में जीवित बचे लोगों के विवरण सामने आते हैं। इनमें ज़्यादातर महिलाएँ हैं। कौन हैं वे? हत्याओं के समय, इन्हीं महिलाओं ने अपने घर के पुरुषों और खुद को बचाने की भरपूर कोशिश की। जब वे इसमें विफल रहीं तो वे आनन फ़ानन में अपने मृत प्रियजनों की तलाश में निकल पड़ीं, मृतकों से सबंधित अनुष्ठान पूरे किए, एफआईआर दर्ज कराने के लिए पुलिस थानों के चक्कर लगाए, अपने बच्चों और अपनी तबाह कर दी गई ज़िंदगियों को संभालने के लिए बेतहाशा मदद की गुहार लगाई, और ताकतवर आरोपियों , उनके हमलों, रिश्वत और पुलिस की धमकियों का डटकर सामना किया।
- अध्याय 3 (पृष्ठ 20) उन कहानियों को गवाहियों के माध्यम से पेश करता है जो पीयूडीआर ने उनके पुनर्वास कॉलोनियों में बसे अक्सर मायूस घरों में उनके साथ हुई बैठकों से एकत्र कीं। यह अध्याय पिछले दो अध्यायों के निष्कर्षों को भी समाहित करता है, जो इस बात की तस्दीक़ करते हैं कि आयोगों और अदालतों के सामने इन महिलाओं का क्या हाल रहा;
- दोनों आयोगों ने यौन हिंसा के उस प्रश्न पर ध्यान क्यों नहीं दिया, जिसका उल्लेख उनकी गवाहियों में कहीं न कहीं किया गया था? यह अध्याय और परिशिष्ट 3, (पृष्ठ 40) सामूहिक हिंसा की पीड़ित महिलाओं के बोझ को जानबूझकर मिटाए जाने और आधिकारिक इतिहास की विफलता के उदाहरणों को संबोधित करते हैं;
- गवाहों पर मुकदमें क्यों चलाए गए? जिस सहजता से निचली अदालतों ने विलंब, ‘अफवाह’ या यहाँ तक कि ‘विरोधाभास’ के आधार पर पीड़ितों की गवाही को खारिज किया, वह सामूहिक हत्या की पीड़ित गवाहों के प्रति अंतर्निहित अविश्वास को दर्शाता है। कुछ महिलाओं की गवाही में उन संघर्षों का विस्तार से वर्णन है जो इन महिलाओं को अदालतों में न्याय पाने के लिए करने पड़े हैं;
- आयोगों, अदालतों, राहत और मुआवज़ा कार्यालयों के समक्ष, इन महिलाओं और उनके परिवारों का इन 40 वर्षों में क्या हाल रहा है? (परिशिष्ट 4, पृष्ठ 42, “खोई हुई पीढ़ी” के जीवन का वर्णन करता है।)
हिंसा के दशकों बाद बचे लोगों के बयानों से पता चलता है कि उन्होंने 1984 के नरसंहार की कई पहलुओं पर कितनी पीड़ा झेली है और आज भी झेल रहे हैं। राजसत्ता के विभिन्न अंगों की भूमिका — हिंसा को सीधे तौर पर अंजाम देने से लेकर उसे छिपाने और अपराधियों की पहचान करने और उन पर मुकदमा चलाने में आपराधिक न्याय प्रणाली की विफलता तक — उजागर होती है।
परमजीत सिंह और हरीश धवन
(सचिव)
