People’s Union for Democratic Rights

A civil liberties and democratic rights organisation based in Delhi, India

2013 में मुज़फ्फरनगर में हुऐ दंगों से सम्बंधित हत्याओं, बलात्कार, लूट और आगज़नी के मामलों में आरोपियों के बरी होने की खबरें लगातार सामने आ रही हैं | पीयूडीआर चिंता व्यक्त करता है कि 2013 में मुज़फ्फरनगर के दंगों के बाद डर और खुली छूट का जो माहौल बना था, वह आज भी बरकरार है | आरोपियों द्वारा गवाहों को डरा-धमका कर चुप कराया जा रहा है | पीयूडीआर उत्तर प्रदेश पुलिस और प्रशासन की जांच में जान-बूझकर की जा रही ढील और लोगों को सुरक्षित महसूस कराने में उनकी नाकामयाबी की निंदा करता है | साथ ही पीयूडीआर न्यायालयों की भी निंदा करता है जो लगातार पक्षपातपूर्ण फैसले सुना रहे हैं |

सितम्बर 2013 में उत्तर प्रदेश के मुज़फ्फरनगर, शामली, बागपत, मेरठ, और सहारनपुर ज़िलों में दंगें भड़क उठे थे | इस दौरान सरकारी आंकड़ों के अनुसार कम से कम 33,000 लोग विस्थापित हुए थे, कम से कम 60 लोगों की हत्या कर दी गई थी, और कम से कम 7 बलात्कार के मामले दर्ज़ किए गए थे | मुसलमान परिवारों के कम से कम 27000 लोग मजबूरन अपना गाँव-घर छोड़कर 58 राहत शिविरों में जा बसे थे | पीयूडीआर ने उस समय कुछ राहत शिविरों का दौरा किया था और विज्ञप्ति जारी की थी | (पीयूडीआर प्रेस विज्ञप्ति – 6 जनवरी 2014 – www.pudr.org)

5 फरवरी 2016 को मुज़फ्फरनगर के अतिरिक्त ज़िला एवं सत्र जज अरविन्द कुमार उपाध्याय ने मुज़फ्फरनगर दंगों के दौरान हुए दोहरे हत्याकांड के 10 आरोपियों को साक्ष्य के अभाव में बरी कर दिया | इन लोगों पर 8 सितम्बर 2013 को लाक गाँव के एक लड़के आस (पिता इकबाल) और उसकी मौसी सराजो (पति वाहिद) को जलाकर हत्या करने का आरोप था | आस और सराजो के पाँच परिवारजन, जिनमें से एक के बयान पर शिकायत दर्ज़ की गई थी और जो पाँचों इस मामले में अभियोजन पक्ष के मुख्य गवाह थे अपने बयान से पलट गए | इसी प्रकार 21 जनवरी 2016 को फुगाना गाँव में सामूहिक बलात्कार के एक मामले में 4 आरोपियों को बरी कर दिया गया | इस मामले में भी अभियोजन पक्ष के 4 मुख्य गवाह, पीड़िता के परिवारजन, अपने बयान से पलट गए | ऐसे कई और मामलों की सूची और आरोपियों के बरी होने के कारण निम्नलिखित हैं |

क्र.स. फैसले के तारीख न्यायलय अपराध गाँव/थाना पीड़ित का नाम बरी करने का कारण
1 2 जनवरी 2016 अतिरिक्त ज़िला एवं सत्र न्यायालय, मुज़फ्फरनगर जबरन घर में घुसपैठ, पिटाई, डाका फुगाना थाना यामीन गवाह अपने बयान से मुकरे
2 12 जनवरी 2016 अतिरिक्त ज़िला व सत्र न्यायालय, बागपत ज़िला दोहरा हत्याकाण्ड

 

बरौत थाना शोएब (पिता नाज़िम), इकबाल (पुत्र इलियास) मृत के परिवारजन बयान से मुकरे
3 21 जनवरी 2016 अतिरिक्त ज़िला एवं सत्र न्यायालय, मुज़फ्फरनगर सामूहिक बलात्कार फुगाना थाना   – पीड़िता के परिवारजन बयान से मुकरे
4 28 जनवरी 2016 अतिरिक्त ज़िला एवं सत्र न्यायालय, मुज़फ्फरनगर जबरन घर में घुसपैठ, आगजनी लाक गाँव शौक़ीन अली गवाह अपने बयान से मुकरे
5 5 फरवरी 2016 अतिरिक्त ज़िला एवं सत्र न्यायालय, मुज़फ्फरनगर दोहरा हत्याकाण्ड लाक गाँव आस (पिता इकबाल),

सराजो (पति वाहिद)

मृत के परिवारजन बयान से मुकरे
6 मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट, बाघपत हत्याकाण्ड अनछाढ़ गाँव, बिनौली थाना मोहम्मद आमिर खान (पिता रईस्सुद्दीन) पुलिस ने समापन रिपोर्ट दर्ज़ की, विरोध याचिका लंबित

 

ये सभी फैसले राज्य की आपराधिक न्याय प्रणाली पर कई प्रश्न खड़े कर देते हैं |

1. पुलिस द्वारा जान-बूझकर जांच में देरी क्यों? 2013 में पीयूडीआर की जांच में यह बात सामने आई थी कि पुलिस द्वारा जांच में जान-बूझकर देरी की जा रही थी | कम से कम 5 ऐसे मामले सामने आए थे जिनमें जघन्य अपराध होने के बावजूद समय पर चार्जशीट दाखिल न किए जाने के कारण आरोपी बेल पर बाहर थे | प्राथिमिकी दर्ज़ करने में देरी के भी कई मामले सामने आए थे | फुगाना थाने में बलात्कार के मामलों में शिकायत करने के 4 महीने बाद दबाव बनाने पर प्राथिमिकी दर्ज़ की गई थी | और फिर यही देरी बाद में अलाहाबाद उच्च न्यायालय में कुछ आरोपियों को बेल मिलने का कारण बन गई थी | अन्य गिरफ्तारियाँ भी सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बाद ही की गईं | मोहम्मद आमिर खान (पिता रईस्सुद्दीन) – जिसकी लाश उसी के घर में पेड़ से टंगी हुई पाई गई थी – के मामले में बार-बार शिकायत करने पर भी पुलिस ने पोस्ट-मोर्टेम नहीं करवाया | बाद में पुलिस ने मामला बंद करने के लिए कोर्ट में समापन रिपोर्ट दाखिल कर दी | अभी इस समापन रिपोर्ट के खिलाफ कोर्ट में विरोध याचिका लंबित है | क्या ये सभी उदाहरण आरोपियों के साथ पुलिस की सांठ-गाँठ की ओर इशारा नहीं करते?

2. गवाहों को सुरक्षा प्रदान करने में नाकामयाबी क्यों? ज्ञात हो कि 2 मामलों में परिवारजनों ने कोर्ट के बाहर एक अखबार को बयान दिया है कि उनको अभियुक्त पक्ष द्वारा मामले वापस न लेने की सूरत में जान से मारने की धमकी दी गई है | एक मामले में मृत के पिता ने कहा कि अगर उनके परिवार को सुरक्षा दी गई तो वे फैसले के खिलाफ अपील करेंगे | 21 जनवरी को बलात्कार के मामले में हुई रिहाई के बाद पीड़िता के पति ने कोर्ट के बाहर बयान दिया कि उनको शुरू से ही जान से मारने की धमकी दी जा रही थी और इसके बारे में उन्होंने पुलिस को कई बार लिखा भी था | लेकिन लगभग 9 महीनों के बाद ही उनको सुरक्षा प्रदान की गई थी | आज भी मुसलमान परिवार अपने गाँव वापस लौटने को तैयार नहीं हैं | पीयूडीआर की 2013 की जांच के दौरान फुगाना और बिनौली थाना से जघन्य हत्याओं के 2 ऐसे मामले भी सामने आए थे जहां परिवारजनों पर गाँव के सरपंचों ने मामले दर्ज़ न करने के लिए दबाव डाला था और जान से मारने की धमकी भी दी थी | डर और खुली छूट का जो माहौल उस समय था वह आज भी बरकरार है | लोगों को सुरक्षित महसूस कराने में पुलिस और प्रशासन की पूर्ण नाकामयाबी क्या उनके साम्प्रदायिक चरित्र की ओर इशारा नहीं करती?

3. न्यायालय क्यों कर रहे हैं पक्षपात? यह निंदनीय हैकि न्यालायाय सब कुछ देखने के बाद भी मूक दर्शक बने बैठे हैं | स्पष्ट है कि गवाह डर के कारण अपने बयानों से पलट रहे हैं | सर्वोच्च न्यायालय ने कई बार कहा है कि न्यायालय साक्ष्य दर्ज़ करने का केवल एक ‘टेप रिकॉर्डर’ नहीं है | न्यायालयों को मुकदमों के दौरान एक सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए | किसी मुक़दमे का उद्देश्य है सच को जानना और न्याय करना | और जहां न्यायालय को लगे की अभियोजन पक्ष आरोपियों के साथ मिला हुआ है, वहाँ तो न्यायालय की ज़िम्मेदारी और भी गंभीर हो जाती है (ज़ाहिरा हबिबुल्लाह शेख और अन्य बनाम गुजरात राज्य, 12 अप्रैल 2004) | ध्यान रहे कि चार मामलों में सरकारी वकील साजिद राणा थे जिन्हें 9 फरवरी को उत्तर प्रदेश सरकार ने खुद अपने पैनल से बर्खास्त कर दिया था | ऐसे में क्या न्यायालयों को नहीं चाहिए कि वे गवाहों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के आदेश दें और मुकदमों को उनके उचित निष्कर्ष तक पहुंचाएं? ऐसा न किये जाने से न्यायालयों का रवैय्या केवल पक्षपातपूर्ण ही प्रतीत होता है |

पीयूडीआर उत्तर प्रदेश पुलिस और प्रशासन के रवैय्ये की कड़ी निंदा करता है | स्पष्ट है कि एक तरफ जहां जांच में सोच-समझकर देरी और ढील की गई है, वहीँ दूसरी ओर पीड़ितों की सुरक्षा और उनमें पनप रहे खौफ को कम करने का कोई भी प्रयास नहीं किया जा रहा है | इसके अलावा मुज़फ्फरनगर उप-चुनावों की तारीखों के आस-पास आए ये फैसले इस डर को और भी बढ़ा देते हैं, जिसके लिए पूर्ण रूप से उत्तर प्रदेश पुलिस, प्रशासन और आपराधिक न्याय प्रणाली ज़िम्मेदार है | हम मांग करते हैं कि लोगों को न्यायालयों द्वारा सुरक्षा दी जाए और सुनिश्चित किया जाए कि न्यायपूर्ण फैसले किए जाएँ |

मौशुमी बासु और दीपिका टंडन
सचिव
pudr@pudr.org

Please follow and like us: